
दुध वरदान क्यों?
पशुओं की उत्पादन क्षमता बढती हैै। पसा समय पर गाभिन होता है और हर साल एक बच्चा व 300 दिन तक भरपूर दूध का लक्ष्य प्राप्त करने में मदद मिलती है। पसा बिमारी से दूर रहता है जिससे रोग पर होने वाले खर्च में भारी कमी आती है। दुध का उत्पादन, फैट व ैछथ् बढता है। यूरिया रहित होने के कारण यूरिया के दुश्प्रभाव नहीं होते।
पशु पालन के संबंध में ध्यान रखने योग्य बाते
2 -हरा चारा प्रत्येक पशु को प्रतिदिन मिलना चाहिए | हरे चारे की मात्रा 10 – 30 किलोग्राम तक होनी चाहिए । इसकी कमी के समय साइलेज का प्रयोग करें ।
3-संतुलित आहार पशु के शरीर, भार एंव उत्पादन क्षमता को दॄष्टिगत रखते हुवे दिया जाना चाहिए। नए आहार की मात्रा धीरे–धीरे बढ़ाएं।
4 –दूध वरदान बत्तीसा, यकृतामृत सप्ताह में ३-४ बार प्रत्येक पशु को आवश्य दें।
5 – स्वच्छ जल हर समय उपलब्ध रहना चाहिए ।
6 -पशुशाला की सफाई नित्य दो बार की जानी चाहिए।
7 –कृमि-नाशक दवा प्रत्येक तीन चार माह पर दें।
8 -पशुओं का गर्भाधान, अच्छे नस्ल के स्वस्थ सांड / भैंसा द्वारा प्राकृतिक रूप से या पशु विशेषज्ञ द्वारा कृत्रिम गर्भाधान से कराया जाना चहिये ।
9 -बाँझपन की झाँच एंव चिकित्सा अवश्य कराई जानी चहिये ।
10 -थनैला रोग हेतु दूध की जांच अवश्य करनी चहिये।
11-पशु को ब्याने के पूर्व शक्ति धरा , यकृतामृत एंव ब्याने के पश्चात् गर्भांजलि, संवृद्धि कैल्शियम एवं शक्तिधारा इत्यादि दूध वरदान फीड सप्लीमेन्ट्स का प्रयोग आवश्य करें ।
संतुलित पशुआहार का दुग्ध उत्पादन में महत्व |
मात्रा में एवं अनुपात में उपलब्ध होते हैं।
महत्व :
1-संतुलित पशुआहार में आवश्यक पोषक तत्व प्रोटीन, फैट, कार्बोहायड्रेट, विटामिन्स एंव मिनरल्स उचित अनुपात में उपलब्ध होने से पशु का समग्र शारीरिक विकास होता है। गर्भ में पल रहे बच्चे के समुचित विकास क लिए इसे खिलाना लाभ प्रद होता है।
2 -इस आहार में प्रोटीन विभन्न स्रोतों से प्राप्त होने के कारन अमीनो एसिड्स संतुलित होते है।
3 -इस आहार में फैट (वसा) विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होने के कारन वसा अम्ल (फैटी एसिड) भी संतुलित होते है।
4 -संतुलित पशुआहार खिलने से दूध की मात्रा व गुणवत्ता के साथ में बढ़ोतर साथ-साथ पशु से उत्तम गुणों वाले स्वादिष्ट दूध की प्राप्ति होती है ।
5-कार्बोहायड्रेट (ऊर्जा ) विभन्न स्रोत्रों से प्राप्त होने के कारन पशु को संतुलित ऊर्जा मिलती है। जिससे पशु की उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है।
6-पशु की रोक प्रतिरोधक क्षमता पढ़ती है। अतः पशु कम बीमार होते हैं ।
7 -असंतुलित आहार ज्यादा महंगा एंव इसे पचाने में पशु को ज्यादा ऊर्जा / ताकत खर्च करनी पढ़ती है एंव खनिज व लवणों की कमी से होने वाले न्यून रोगों की सम्भावना रहती है ।
8-संतुलित पशु आहार अपने आप में संपूर्ण आहार है इसे खिलाने के पश्चात्त पशु को अन्य कोई बांट-चाट, अनाज, खल इत्यादि देने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इस पशुआहार को इन सभी पदार्थो के उचित समावेश से वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर बनाया जाता है।
9-संतुलित पशुआहार, जैसे ____पशु क लिये वरदान स्वरुप है, जिससे पशु ह्रिष-पुष्ट, बलवान तथा निरोगी रहता है।दुधारू पशु को _____ पशुआहार खिलाने से पशु समय पर गर्मी में आते हैं तथा गाभिन हो जाते हैं एंव पशु से वर्ष में 300 दिन तक भरपूर दूध व प्रतिवर्ष एक बच्चा लिया जा सकता है ।
पशुओं को खनिज मिश्रण खिलाने का महत्व ।
१– प्रजनन शक्ति को ठीक रखता है और दो ब्योतों के बिच के अंतर को कम करता है।
२–पशुओं की रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ाता है।
३–पशुओं में ब्यात के आस–पास होने वाले रोगों जैसे दुग्ध ज्वर, कीटोसिस, मूत्र में रक्त आना जैसी समस्या को नियंत्रित करता है ।
४ – दुधारू पशुओं में होने वाले कैल्शियम और फॉस्फोरस की कमी को दूर करता है।
६– जेर न गिरना, योनिभ्रंश (प्रोलेप्स) थनैला जैसे रोगों से बचाव में मदद करता है।
७ –थनों के विकास में सहायक है।
८- दूध उतारने में मदद करता है एंव पशु को तनाव मुख्त रखता है।
९ – बछड़े /बछड़ियों की वृद्धि में सहायक है
बायपास-प्रोटीन युक्त पशुआहार खिलने का महत्व
बाईपास–प्रोटीन युक्त पशुआहार पशु के शरीर में माँस–कोशिकाओ की क्षतिपूर्ति, शरीर की वृद्धि, तथा दुग्ध उत्पादन हेतु प्रोटीन आवश्यक है। इसके अतिरिक्त छूत की बिमारिओं, बाँझपन, प्रजनन सम्बन्धी अनेक बाधाये दूर करने में भी प्रोटीन की आवशक्ता होती है। समान्यतः आहर में उपलब्ध प्रोटीन का अधिकांश हिस्सा पेट के पहले भाग में ही टूट जाता है। जबकि बाईपास–प्रोटीन का अधिकांश हिस्सा पेट के पहले भाग में न टूटकर आगे बढ़ जाता है जिससे पशु उसका उपयोग बेहतर तरीके से करता है।
सामान्य तौर पर तैयार किये हुये पशु आहार में प्रोटीन केवल ३०–३५ % ही अवशोषित (Absorve) होता है।
जबकि बाईपास विधि से तैयार संतुलित पशु आहार में प्रोटीन की उपलब्ध ता ३०–३५ % से बढ़कर ७० –७५ % (लगभग दोगुनी) हो जाती है। अतः पशु की दूध उत्पादन क्षमता पढ़ जाती है और उत्पादन लागत उतनी ही मात्रा में कम हो जाती है।
बाईपास फैट युक्त पशुआहार खिलने का महत्व
बाईपास फैट युक्त पशुआहार पशु के शरीर को ताक़त व ऊर्जा देने के लिए तथा शरीर की बढ़ोतरी, तंदरुस्ती एंव प्रजनन शक्ति के लिए फैट(वसा) आवश्यक है। सामन्यतः आहार में उपलब्ध फैट का अधिकांश हिस्सा पेट के पहले भाग में ही टूट जाता है। जबकि बाईपास फैट का अधिकांश हिस्सा पेट के पहले भाग में न टूटूकर आगे बढ़ जाता है। जिससे पशु उसका उपयोग बेहतर तरीके से करता है। अतः पशु की दूध उत्पादन क्षमता एंव दूध में वसा की मात्रा बढ़ जाती है और उत्पादन लागत उतनी ही मात्रा में कम हो जाती है।
पशुओं के लिए पानी का महत्व
१–पशुआहार और चारे को पचाने के लिए।
२– पोषक तत्वों को शरीरी के विभन्न अंगों तक पहुँचने के लिए।
४ – शरीर के तापमान को नियंत्रित करने के लिये।
५– आम तौर पर एक स्वस्थ पशु एक दिन में लगभग अपने भोजन से ४ से ५ गुणा पानी पिता है। पानी जहां तक साफ–सुथरा व चलता हुआ होना चाहिए तथा इसमें घुले ठोस की मात्रा 2000 T.D.S होनी चाहिए।
6 – पशु को स्वच्छ एंव भरपूर पानी पिलाने से दुग्ध उत्पादन अच्छा मिलता होती है।
पशुओं क गर्मी में आने के लक्षण
2 -प्रजनन अंगो से गाढ़े चिप चिपे और पारदर्शी द्रव का निकलना।
3-बार बार पेशाब करना। बार बार रंगना पूंछ उठाना।
4 -पशु को बेचैन होना, दुसरे जानवरो को सूंघना और उन पर चढ़ना।
5 -गर्मी में आने के १२ से २४ घंटे के मध्य का समय गर्भाधान के लिए उपयुक्त समाय होता है।
पशु को गाभिन कराते समय या उसके बाद रखी जाने वाली सावधानियाँ
- अच्छी नस्ल के सांड/ भैंसा द्वारा प्राकृतिक रूप से यापशु विशेषज्ञ द्वारा कृत्रिम गर्भधान से गाभिन कराया जाना चाहिये ।
- 2 -मादा पशु को २ वर्ष की आयु में गाभिन हो जाना चाहिए। अतः बछियों की देखभाल, आहार तथा रख रखरखाव पर पूर्ण ध्यान देना चाहिये ।
- गर्मी में आने के १२ से २४ घंटे के बीच ही कृत्रिम / प्राकृर्तिक गर्भाधान करना चाहिये। यदि पशु गाभिन नहीं हुआ तो वह २१ दिन बाद पुनः गर्मी में आयेगा। यदि गर्मी के लक्षण सुबह दिखे तो शाम को या शाम को देखें तो अगले दिन सुबह गाभिन कराना चाहिये ।
- साधारणतः पशु ब्याने के बाद २ से २. ५ माह के बिच पुनः गाभिन हो जाना चाहिये। दुग्धा अमृत पशु आहार नियमित रूप से खिलाने से इस समस्या का समाधान संभव है।
5 – गाभिन कराने के पश्च्यात पशु को १०-१५ मिनिट तक बांधे रखना चाहिये तथा धीरे-धीरे चलाकर ले जाना चाहिये पशु को दौड़ाना नहीं चाहिये।
गाभिन पसु की देखभाल
- गाभिन पशु के भ्रूण का विकास ६-७ माह के दौरान तेज़ी से होता है। इसीलिए निम्लिखित बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
१-गाभिन पशु का 7 वे माह के बाद दूध निकलना धीरे धीरे बंद कर देना चाहिये जिससे पशु एंव भ्रूण का समुचित विकास हूँ सके। तथा बैठते समये पशु का पीछा (पीछे का भाग ) गड्ढ़े में न रहे।
२ -गाभिन पशु को संतुलित पोषक आहार की आवश्यकता है , बच्चे एंव थनो के समुचित विकास एंव दुग्ध उत्पादन के लिए जरुरी है तथा दुग्ध ज्वर (Milk Fever ) , कीटोसिस जैसे रोगो से बचाव हो सके।
३-गाभिन पशु को अधिक दूर तक दौड़कर या उबड़-खाबड़ रास्तो पर नहीं घूमना चाहिये तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्तालान्तरित नहीं करना चाहिये ।
4- गाभिन पशु जहाँ बंधा हो उसके पीछे के हिस्से का फर्श कुछ ऊँचा होना चाहिये जिससे योनि भ्रंश (Prolapse of Uterus) की समस्या को नियंत्रित किया जा सके।
5- गाभिन पशु को प्रतिदिन ७०-८० लीटर स्वाच व ताज़ा पानी उपलब्ध करना चहिये।
6 -गाभिन पशु को मल्टीविटामिन एंव शक्तिधारा जैसी फीड सुप्प्लिमेन्ट्स नियमित रूप से देना चहिये।
पशु के ब्याने के लक्षण
- १-पशु में बेचैनी सी प्रतीक होती है तथा बार बार उठता बैठता है। २ -पशु बार बार गोबर, पेशाब करने की प्रयास करता है।
३-पशु की भूक प्यास काम हूँ जाती है।
४-पशु की योनि से तरल पदार्थ बहने लगता है।
५ -पशु के थन / लेवटी में दूध आ जाता है। थानों को दबाने से दूध निकलने लगता है।
ब्याने के समय पशु की देखभाल
- १-पशु के ब्याने के पूर्व शक्तिधारा, यकृतामृत इत्यादि फीड सुप्प्लिमेंट्स नियमित रूक से देना चाहिए ।२-पशु के समीप किसी भी प्रकार का शोर, भीड़-भड़क्का नहीं होना चहिये ,३- पशु के बयते समय अनावश्यक दखल न दे , उसे स्वाभाविक रूप से ब्याने दे।
४ -ब्याने के पूर्व पुट्ठे तोड़ने के समाये से एंव इसके बाद पशु को गुनगुना गुड़ का पानी।, अजवाइन, मेथी दलीय खिलाये
५ –मादा पशु जाने के पश्चात अधिकतम 10 घंटे में जेर डाल देती है। जेर के तुरंत हटाकर किसी अन्य स्थान पर मिट्टी में दबादें। पशु को ब्याने के पश्चात तुरंत गर्भ _____ ,____ इत्यादि फीड सप्लीमेंट देना चाहिये। ताकि पशु के गर्भाशय की सफाई तथा पशु फिर से ऊर्जावान हो जाए।
६- ब्याने के बाद पहला गाढ़ा दूध (खीस) पूरा न निकले, क्यूंकि इससे पशु शिथिन हो सकता है।
७-पशु के ब्याने में समस्या आने पर पशु चिकित्सक की सहायता ले।
८-जेर गिरने के पश्यत वातावरण के अनुसार पशु थोड़े गरम या स्वच्छ ताजे पानी से स्नान करना चहिये।
९-ब्याने के पश्च्यात पशु को आसानी से पचने वाला भोजन जैसे मिश्रत गरम चावल, उबला हुआ बाजरा, गेहूं का दलिया, गुड़ इत्यादि खिलाएं ।
ब्याने के बाद पशु की देखभाल
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१–पशु को वातावरण के अनुसार खुले या स्वच्छ स्थान पर रखना चाहिये।
२ – ब्याने के पश्यात पशु को १–२ घण्टे बैठने न दें, इससे योनिभ्रंश (प्रोलेप्स) की सम्भावना कम रहती है | ब्याने के तुरंत बाद २०० मिली, गर्भांजलि पिलाये ताकि जेर आसानी से निकल जाए।
३ – पशु को बच्चे के साथ कम से कम ८–१० दिन तक अन्य पशुओं से अलग रखें।
४–पशु को _______ दूध आहार पशु आहार के साथ _______ संवृद्धि (कैल्शियम) तरल या बोलस दें ।
५– अधिक दूध देने वाले पशु को संवृद्धि कैल्शियम के साथ मल्टीविटामिन आवश्य दें।
६ – दूध दोहने के पश्यत पशु को आधा घंटा बैठने न दें । इसके लिये उसे चारा खिलायें जससे पशु बैठे नहीं। थनैला रोग से रोकथाम के लिये यह आवश्यक है।
७- दूध दोहने के पश्यत थन को कीटाणुनाशक घोल /नीम के पत्ते पानी में उबालकर तथा ठंडा करके घोल से साफ़ करना चाहिये। थनैला रोग से रोकथाम के लिये यह आवश्यक है अथवा अन्य कुदरती कीटनाशक द्रव से साफ़ करें।
नवजात बच्चों की देखभाल
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१– जनम के तत्काल बाद बछड़े–बछड़ियों की नाक, उसका मुँह तथा नवजात बच्चे की खुरियों को साफ़ करें ।
२ – यदि बच्चा आधे घंटे में खड़ा न हो तो उसे सहारा देकर खड़ा करें तथा उसके शरीर की मालिश करें ।
३–नाल को २ इंच छोड़कर धागे से बांधकर रोगाणुरहित कैंची से काट दें । इसके पश्चात् टिंचर आयोडीन को लगाऐं, जिससे नाल में संक्रमण को रोका जा सके।
४–जन्म के पश्यत आधे–आधे घण्टे के भीतर बच्चे को खीस पिलायें। खीस की मात्रा करीब २ लीटर दिन में ३ – ४ बार बांटकर पिलायें। इससे बच्चे की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और शरीर का विकास अच्छा होता है तथा दस्तावर होने से आंतो का गंधा मल साफ़ हो जाता है।
५ – मादा पशु का पहला दुध (खीस) नवजात बच्चे के लिए प्रकृति द्वारा दिया गया अमूल्य उपहार है।
इसमें अतरिक्त सभी पोषक तत्व भरपूर मात्रा में पाये जाते हैं।
६– नवजात बच्चे को कृमिनाशक दवा निम्न समायानुसार दे–तीसरे सप्ताह, तीन माह, छ: माह।
७- तीन माह के पश्यात पशु चिकित्सक द्वारा ठीके (Vaccine ) लगवाएं।
८–बच्चा जनने के 60 दिन पहले अच्छी तरह से पशुआहार शरीर के रख–रखावं अतिरिक्त पशुआहार जनने वाले बच्चे के लिए खिलाना चाहिए। इसकी मात्रा गाय के लिए 3 किलो (१. ५+१.५ किलो ) और भैंस के लिए ३. ५ किलो (२+१. ५ किलो) होनी चाहिए।
पशु की देखभाल
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१.पशु के साथ नम्रता: का व्यवहार करना चाहिये। पशु को डरना धमकाना नहीं चाहिये। इससे पशु तनाव् में आता है तथा उत्पादन क्षमता प्रभावित होती है।
२–पशुशाला साफ़-सुथरी हवादार व गर्मी–सर्दी वर्षा से बचाव को ध्यान में रखकर होना चाहिये।
३– पशु को नियमित रूप से हरा, सूखा चारा व दूध बरदान संपूर्ण संतुलित आहार, पशु की उत्पादन क्षमता के अनुसार देना चाहिये।
४–दुधारू पशु से वर्ष भर में ३०० दिन तक भरपुर दुग्ध उत्पादन एवं प्रतिवर्ष एक बच्चा के लक्ष की प्राप्ति _______ पशु उत्पादों से संभव है।
५– पशुशाला में हर हफ्ते एक बार कीटणुनाशक घोल (गोनाइल) या सूखा चुना इत्यादि का छिड़काव करे। जिससे पशु को बीमारी से बचाया जा सकता है।
६– पशु को वातावरण के मुताबिक, नहलाना,खुरहरा करना चाहिये। इससे धूल, बाल, गन्दगी, जुएँ, चिंचड़ी, किल्ली(External parasites) तथा शरीर में लगे घाव, चोटों का पता चल जाता है।
७– पशुओं को बाड़ें में खुला रखें तथा व्यायाम हेतु चरने भेंजे, इससे पशु स्वस्थ रहता है तथा दूध उत्पादन क्षमता बढ़ती हैं व पशु तनाव मुख्त रहता है।
८–दूध दोहने में १२ घण्टे का अंतराल रखें। दूध दोहने के पश्यत पशु को चारा खिलायें और करीब आधा घण्टा तक बैठने न दें। थनैला रोग से बचाव के लिये यह उत्तम उपाय है।
९– समयतः दुधारू पशु के सामने के दो थनों से ४० –४५% दूध उत्पादन होता है और पीछे के दो थनों से ५५ –६० % दूध उत्पादन होता है।
१०–दूध दोहने के लिये वैज्ञानिक दृष्टिकोण () विधि के अनुसार दूध निकलना चाहिये। जो आरामदेह व सरल है।
११– दूध दोहने वाले व्यक्ति के नाख़ून कटे हुए हो तथा व्यक्ति को किसी भी प्रकार का छथ का रोग न हो, उसके हाथ साफ़ और स्वच्छ पानी से धुले हुये हो तथा दूध निकालने का बर्तन साफ़ सुथरा हो।
१२–सरकर द्वारा प्रतिबन्धित आक्सीटोसिन इंजेक्शन का प्रयोग दूध उतारने के लिये वर्जित है जो पशु एंव मानव स्वास्थ के लिए हानिकारक है इससे पशु बांझपन का शिकार होता है और यह दूध पीने से हममें भी विकृतियां आती है।
पशुओं में प्रजनन सम्बन्धी प्रमुख समस्याएं
- १–प्रथम ब्यात पर अधिक उम्र
- २-शांत ऋतुकाल
- ३-बार बार गर्मी में आना
- ४–लम्बा शुल्क काल
- ५ –कम दुग्ध उत्पादन
- ६ –दो ब्यतों के बीच अधिक अन्तर आदि।
पशुपालन/दुग्ध उत्पादन क्षेत्र की कुछ महत्वपूर्ण उपलब्द्धियाँ
- १-दूध उत्पादन की वृद्धि दर ने तोड़े अब तक के सारे रिकॉर्ड 2015 से 2016 में दर्ज हुआ 9.5% वृद्धि दर। २- भारत दूध उत्पादन में है दुनिया में नंबर एक।
३- भारत विश्व दूध उत्पादन में 17% का योगदान देता है।
४- 2013-14 में भारत विश्व दूध उत्पादन 137.69 मिलियन टन, 2014-15 में बढ़कर हुआ 146.31 मिलियन टन और 2015 से 2016 में 160. 35 मिलियन टन दूध के उत्पादन का अनुमान है।
५-160 .35 मिलियन टन दूध की कीमत ४ लाख करोड़ रुपये से भी अधिक है।
६- डेयरी किसानों की आय में पिछले 2 वर्ष में 4.71% की औसत वृद्धि की गई है।
७- दूध के कारोबार में उपभोक्ता मूल्य का 75% किसानों को जाता है।
८- प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता वर्ष 2013-14 = 307 ग्राम
९- कुल पालतू पशुओ (Live Stock) की संख्या = 512.05 मिलियन
१०- कुल गाय-भैंसों पशुओं (Bovine) की संख्या = 299.90 मिलियन
११-कुल दुधारू पशुओं (Milch animal)की संख्या = 118.59 मिलियन
(सूखे एंव दूध देने वाले पशु )
१२-कुल गायों की संख्या = 122 . 90 मिलियन
क) संकर नस्ल = 19. 40 मिलियन
ख) देशी गोवंश = 48 . 12 मिलियन
१३-कुल भैसों की संख्या = 92. 50 मिलियन
पशुओं में कृमिनाशक (डीवार्मिंग ) का महत्व
- पशुओं में चारे एंव पानी की माध्यम से कई प्रकार की कृमियों (कीड़ो) के अण्डे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं, जो शरीर के विभिन्न अवयवों में जाकर बड़े कीड़ों का गू लेकर फैल जाते हैं । फिर यह कीड़े पेट में पशु का ज्यादा से ज्यादा भोजन खाने लगते हैं। इससे पशु को भोजन का पर्याप्त मात्रा में लाभ नहीं मिलता और पशु कमजोर होने लगता है। अंततः उसकी दुग्ध उत्पादन क्षमता घटने लगती है।इन कृमियों के रोकथाम हेतु वर्ष में तीन बार नियमित रूप से कृमिनाशक (डिवर्मिंग) दवा खिलाना यो पिलाना अति आवश्यक है।मुख्यतः वर्षा ऋतु से पूर्व (अप्रैल मई माह), वर्षाकाल के पश्चात (सितंबर अक्टूबर माह) एवं शरद काल (जनवरी फरवरी माह) में कृमिनाशक दवा दी जाती है।यह सभी प्रकार के एंव सभी पशुओं को देना आवश्यक है।इसके लिए आप अपने नजदीकी सरकारी पशु स्वास्थ्य केंद्र से संपर्क कर उनसे या उनकी सिफारिशानुसार मेडिकल स्टोर से कृमिनाशक लाकर अपने पशुओं को दे सकते हैं।दूध वरदान संस्थान का बहुत जल्द इस समस्या से निपटने हेतु उत्पाद आ रह है।पशुओं के लिए उत्तम आवास व्यवस्था
पशुओं के विकास एवं उनसे अधिकतम उत्पादन लेने के लिए उनके स्वच्छ एवं आरामदेह आवास का प्रबंध अत्यंत महत्वपूर्ण है।
दुधारू पशुओं को ऐसे स्थान में रखना चाहिए, जहां उन पर सर्दी–गर्मी का प्रभाव कम को तथा पशुओं को सूरज की सीधी किरणों और हवा के थपेड़ों से बचाया जा सके।
पशु की उत्तम आवास-व्यवस्था हेतु निम्न बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
१-पशु घर में प्रत्येक गाय/भैंस के लिए कम से कम 5. 5 फीट चौडी और 10 फीट लंबी पक्की जगह होनी चाहिए।
२- पशु घर का फर्ज (फ्लोरिंग) खुरदरा किंतु कंक्रीट का होना चाहिए। नाली की ओर 1.5% ढलान होनी चाहिए। नाली 8 इंच चौड़ी और 3 इंच गहरी होनी चाहिए और 1% क्रॉस फ्लोप होना चाहिए।
३- पशु घर की छत कम से कम 10 फीट ऊंची होनी चाहिए।
४-पशु घर तीन तरफ से खुला होना चाहिए। केवल पश्चिम दिशा में दीवार होनी चाहिए। सर्दी में टाट द्वारा तीनों खुली दिशाओं को ढंक देना चाहिए।
५- पशु घर की पश्चिमी दीवार पर 2 फीट चौड़ा और 1. 5 फीट गहरा नांद बनाना चाहिए। नांद का आधार भूमितल से 1 फीट ऊपर होना चाहिए।
६- पशु घर की पूर्वी दिशा में पशुओं के घूमने का क्षेत्र (फ्री लॉफिंग एरिया) होना चाहिए। पशुओं को पेड़ की छाया में सबसे अधिक आराम मिलता है। घूमने के क्षेत्र में 2-3 नीम जैसे छायादार वृक्ष लगाने चाहिए।
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फोन नंबर
9921467999
पता :
त्रिमूर्ति पशु आहार उद्योग, प्लाट नं १०४, रामदेव बाबा दाल मिल के सामने, Chikli, New Mehta Kanta , Bharatnagar, Kalamna, Nagpur- 08